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Sunday, 14 January 2018

कवी भुषण और शिवाबावनी

January 14, 2018 0
कवी भुषण और शिवाबावनी

            कवि भुषण और शिवाबावनी

शिवराज भूषण, कवि भूषण की प्रसिद्ध रचना है। इसमें कुल ३८५ पद्य हैं। भूषण ने अपनी इस कृति की रचना-तिथि ज्येष्ठ वदी त्रयोदशी, रविवार, संम्वत् 1730 (29 अप्रैल, 1673 ई.) को दी है। इस ग्रन्थ में उल्लिखित शिवाजी विषयक ऐतिहासिक घटनाएँ 1673 ई. तक घटित हो चुकी थीं। इससे भी इस ग्रन्थ का उक्त रचनाकाल ठीक ठहरता है तथा साथ में शिवाजी और भूषण की समसामयिकता भी सिद्ध हो जाती है। 'शिवराज-भूषण' में ३८५ छन्द हैं। रीतिकाल के कवि होने के कारण भूषण ने अपना प्रधान ग्रंथ 'शिवराजभूषण' अलंकार के ग्रंथ के रूप में बनाया। दोहों में अलंकारों की परिभाषा दी गयी है तथा कवित्त एवं सवैया छन्दों में उदाहरण दिये गये हैं, जिनमें शिवाजी के कार्यकलापों का वर्णन किया गया है |

भूषण (१६१३-१७१५) रीतिकाल के तीन प्रमुख कवियों में से एक हैं, अन्य दो कवि हैं बिहारी तथा केशव। रीति काल में जब सब कवि शृंगार रस में रचना कर रहे थे, वीर रस में प्रमुखता से रचना कर भूषण ने अपने को सबसे अलग साबित किया। 'भूषण' की उपाधि उन्हें चित्रकूट के राजा रूद्रसाह के पुत्र हृदयराम ने प्रदान की थी। ये मोरंग, कुमायूँ, श्रीनगर, जयपुर, जोधपुर, रीवाँ, शिवाजी और छत्रसाल आदि के आश्रय में रहे, परन्तु इनके पसंदीदा नरेश शिवाजी और बुंदेला थे।

भूषण कवि
भूषण कवि द्वारा छत्रपति शिवाजी महाराज के बारे में रचे काव्य का बिरला मंदिर, दिल्ली में एक शिलालेख
जन्म:१६१३
तिकवांपुर, कानपुर, उत्तर प्रदेश
मृत्यु:१७०५
कार्यक्षेत्र:कविता
भाषा:हिन्दी
काल:रीतिकाल
विधा:रीतिग्रंथ
विषय:वीर रस कविता
शिवराज भूषण, शिवा बावनी, छत्रसाल दशक


कविवर भूषण का जीवन विवरण अभी तक संदिग्धावस्था में ही है। उनके जन्म मृत्यु, परिवार आदि के विषय में कुछ भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार भूषण का जन्म संवत 1670 तदनुसार ईस्वी 1613 में हुआ। उनका जन्म स्थान कानपुर जिले में तिकवांपुर नाम(वर्तमान में टिकमापुर ) का ग्राम बताया जाता है। उनके पिता का नाम 'रतिनाथ' या रत्नाकर त्रिपाठी था। वे काव्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनके छोटे भाई थे -चिंतामणि और मतिराम।
भूषण के वास्तविक नाम का ठीक पता नहीं चलता। शिवराज भूषण ग्रंथ के निम्न दोहे के अनुसार 'भूषण' उनकी उपाधि है जो उन्हें चित्रकूट के राज हृदयराम के पुत्र रुद्रशाह ने दी थी -
कुल सुलंकि चित्रकूट-पति साहस सील-समुद्र।
कवि भूषण पदवी दई, हृदय राम सुत रुद्र॥
कहा जाता है कि भूषण कवि मतिराम और चिंतामणि के भाई थे। एक दिन भाभी के ताना देने पर उन्होंने घर छोड़ दिया और कई आश्रम में गए। यहां आश्रय प्राप्त करने के बाद शिवाजी के आश्रम में चले गए |

पन्ना नरेश छत्रसाल से भी भूषण का संबंध रहा। वास्तव में भूषण केवल शिवाजी और छत्रसाल इन दो राजाओं के ही सच्चे प्रशंसक थे। उन्होंने स्वयं ही स्वीकार किया है-
और राव राजा एक मन में न ल्याऊं अब।
साहू को सराहों कै सराहौं छत्रसाल को॥

संवत 1772 तदनुसार ईस्वी 1715 में भूषण परलोकवासी हो गए।

विद्वानों ने इनके छह ग्रंथ माने हैं - शिवराजभूषण, शिवाबावनी, छत्रसालदशक, भूषण उल्लास, भूषण हजारा, दूषनोल्लासा। परन्तु इनमें शिवराज भूषण, छत्रसाल दशक व शिवा बावनी ही उपलब्ध हैं। शिवराजभूषण में अलंकार, छत्रसाल दशक में छत्रसाल बुंदेला के पराक्रम, दानशीलता व शिवाबवनी में शिवाजी के गुणों का वर्णन किया गया है।
शिवराज भूषण एक विशालकाय ग्रन्थ है जिसमें 385 पद्य हैं। शिवा बावनी में 52 कवितों में शिवाजी के शौर्य, पराक्रम आदि का ओजपूर्ण वर्णन है। छत्रशाल दशक में केवल दस कवितों के अन्दर बुन्देला वीर छत्रसाल के शौर्य का वर्णन किया गया है। इनकी सम्पूर्ण कविता वीर रस और ओज गुण से ओतप्रोत है जिसके नायक शिवाजी हैं और खलनायक औरंगजेब। औरंगजेब के प्रति उनका जातीय वैमनस्य न होकर शासक के रूप में उसकी अनीतियों के विरुद्ध है।
शिवाजी महाराजसे हूए पहिली मुलाखत पर उन्होने ये काव्य फरमाया था |

इन्द्र जिमि जंभ पर , वाडव सुअंभ पर।
रावन सदंभ पर , रघुकुल राज है ॥१॥
पौन बरिबाह पर , संभु रतिनाह पर।
ज्यों सहसबाह पर , राम द्विजराज है ॥२॥
दावा द्रुमदंड पर , चीता मृगझुंड पर।
भूषण वितुण्ड पर , जैसे मृगराज है ॥३॥
तेजतम अंस पर , कान्ह जिमि कंस पर।
त्यों म्लेच्छ बंस पर , शेर सिवराज है ॥४॥
रीति युग था पर भूषण ने वीर रस में कविता रची। उनके काव्य की मूल संवेदना वीर-प्रशस्ति, जातीय गौरव तथा शौर्य वर्णन है। निरीह हिन्दू जनता अत्याचारों से पीड़ित थी। भूषण ने इस अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाई तथा निराश हिन्दू जन समुदाय को आशा का संबल प्रदान कर उसे संघर्ष के लिए उत्साहित किया। इन्होंने अपने काव्य नायक शिवाजी व छत्रसाल को चुना। शिवाजी की वीरता के विषय में भूषण लिखते हैं :
भूषण भनत महावरि बलकन लाग्यो सारी पातसाही के उड़ाय गये जियरे।
तमके के लाल मुख सिवा को निरखि भये स्याह मुख नौरंग सिपाह मुख पियरे॥

इन्होंने शिवाजी की युद्धवीरता, दानवीरता, दयावीरता व धर्मवीरता का वर्णन किया है। भूषण के काव्य में उत्साह व शक्ति भरी हुई है। इसमें हिंदू जनता की भावनाओं को ओजमयी भाषा में अंकन किया गया है। भूषण ने कहा कि यदि शिवाजी न होते तो सब कुछ सुन्नत हो गया होताः
देवल गिरावते फिरावते निसान अली ऐसे डूबे राव राने सबी गये लबकी,
गौरागनपति आप औरन को देत ताप आप के मकान सब मारि गये दबकी।
पीरा पयगम्बरा दिगम्बरा दिखाई देत सिद्ध की सिधाई गई रही बात रबकी,
कासिहू ते कला जाती मथुरा मसीद होती सिवाजी न होतो तौ सुनति होत सबकी॥
सांच को न मानै देवीदेवता न जानै अरु ऐसी उर आनै मैं कहत बात जबकी,
और पातसाहन के हुती चाह हिन्दुन की अकबर साहजहां कहै साखि तबकी।
बब्बर के तिब्बर हुमायूं हद्द बान्धि गये दो मैं एक करीना कुरान बेद ढबकी,
कासिहू की कला जाती मथुरा मसीद होती सिवाजी न होतो तौ सुनति होत सबकी॥
कुम्भकर्न असुर औतारी अवरंगज़ेब कीन्ही कत्ल मथुरा दोहाई फेरी रबकी,
खोदि डारे देवी देव सहर मोहल्ला बांके लाखन तुरुक कीन्हे छूट गई तबकी।
भूषण भनत भाग्यो कासीपति बिस्वनाथ और कौन गिनती मै भूली गति भव की,
चारौ वर्ण धर्म छोडि कलमा नेवाज पढि सिवाजी न होतो तौ सुनति होत सबकी॥

भूषण के काव्य में सर्वत्र उदारता का भाव मिलता है। वे सभी धर्मों को समान दृष्टिकोण से देखते हैं। इनके साहित्य में ऐतिहासिक घटनाओं का यथार्थवादी चित्रण मिलता है। इन्होंने शिवाजी को धर्मरक्षक के रूप प्रशंसा की है तो जसवंत सिंह, करण सिंह आदि की आलोचना भी की है। भूषण ने सारा काव्य ब्रजभाषा में रचा था। ओजगुण से परिपूर्ण ब्रजभषा का प्रयोग सर्वप्रथम इन्होंने ही किया था। इन्होंने प्रशस्तियाँ भी लिखी है।

आज गरीब निवाज मही पर तो सो तुही सिवराज विरजै
भूषण ने मुक्तक शैली में काव्य की रचना की। इन्होंने अलंकारों का सुन्दर प्रयोग किया है। कवित्त व सवैया, छंद का प्रमुखतया प्रयोग किया है। वस्तुतः भूषण बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे कवि व आचार्य थे।
भूषण वीर रस के श्रेष्ठ कवि है

भूषण का वीरकाव्य हिन्दी साहित्य की वीर काव्य परंपरा में लिखा गया है। इनकी कविता का अंगीरस वीर रस है। इनकी रचनाएँ शिवराज भूषण, शिवाबावजी और छत्रसाल दशक वीर रस से ओतप्रोत है। ये तीनों कृतियाँ भूषण की वीर भावना की सच्ची निर्देशक है। यह काव्य अपने युग के आदर्श नायकों के चरित्र को प्रस्तुत करने वाला है। इनमें शिवाजी और छत्रसाल के शौर्य-साहस, प्रभाव व पराक्रम, तेज व ओज का जीवंत वर्णन हुआ है। भूषण के वीरकाव्य की मुख्य विशेषता यह है कि उसमें कल्पना और पुराण की तुलना में इतिहास की सहायता अधिक ली गई है। काव्य का आधार ऐतिहासिक है। इसके अतिरिक्त, इस वीरकाव्य में देश की संस्कृति व गौरव का गान है। भूषण ने अपने वीरकाव्य में औरंगजेब के प्रति आक्रोश सर्वत्र व्यक्त किया है।

भूषण की वीरभावना का वर्णन बहुआयामी है। इसे हम युद्धमूलक, धर्ममूलक, दानमूलक, स्तुतिमूलक आदि रूपों में देख सकते हैं।

वीर रस के स्थायी भाव उत्साह का उत्कृष्ट रूप युद्धभूमि में शत्रु को ललकारते हुए उजागर होता हैं शिवाजी स्वंय वीर थे और उनकी प्रेरणा से हिन्दू सैनिकों के मन में वीरता का भाव उत्पन्न हुआ था। भूषण ने उन सैनिकों की वीरता का वर्णन करते हुए कहा हैः
घूटत कमान अरू तीर गोली बानन के मुसकिल होति मुरचान हू की ओट में।
ताहि समै सिवराज हुकम के हल्ल कियो दावा बांधि पर हल्ला वीर भट जोट में॥
युद्धों का सजीव चित्रण
भूषण का युद्ध वर्णन बड़ा ही सजीव और स्वाभाविक है। युद्ध के उत्साह से युक्त सेनाओं का रण प्रस्थान युद्ध के बाजों का घोर गर्जन, रण भूमि में हथियारों का घात-प्रतिघात, शूर वीरों का पराक्रम और कायरों की भयपूर्ण स्थिति आदि दृश्यों का चित्रण अत्यंत प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया गया है। शिवाजी की सेना का रण के लिए प्रस्थान करते समय का एक चित्र देखिए -
साजि चतुरंग बीररंग में तुरंग चढ़ि।
सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत है॥
भूषन भनत नाद विहद नगारन के।
नदी नद मद गैबरन के रलत हैं॥
ऐल फैल खैल भैल खलक में गैल गैल,
गाजन की ठेल-पेल सैल उसलत हैं।
तारा सों तरनि घूरि धरा में लगत जिम,
धारा पर पारा पारावार ज्यों हलत हैं॥ -- (शिवा बावनी)


कवि ने शिवाजी को धर्म व संस्कृति के उन्नायक के रूप में अंकित किया है। शिवाजी ने मुसलमानों से टक्कर ली तथा हिंदुओं की रक्षा की।
कवि ने शिवाबावनी में कहा है :-
वेद राखे विदित पुराने राखे सारयुत,
राम नाम राख्यों अति रसना सुधार मैं,
हिंदुन की चोटी रोटी राखी है सिपहिन की,
कांधे में जनेऊ राख्यो माला राखी गर मैं॥

वीर रस के कवियों ने अपने नायक को अत्यधिक दानवीर दिखलाया है। भूषण ने शिवाजी की दानवीरता का अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन किया है। पाचक को अपनी इच्छा से ज्यादा दान मिलता है। शिवास्तुति में कवि ने शिवाजी की अपूर्व दानशीलता का वर्णन किया है।
जाहिर जहान सुनि दान के बखान आजु,
महादानि साहितनै गरिब नेवाज के।
भूषण जवाहिर जलूस जरबाक जोति,
देखि-देखि सरजा की सुकवि समाज के॥


भूषण के अनुसार, शिवाजी दया के सागर हैं। वे शरणागत पर दया करते थे। उन्होंने अपने सैनिकों को स्त्रियों व बच्चों को तंग न करने का निर्देश दिया हुआ था। वस्तुतः भूषण ने शिवाजी के पराक्रम, शौर्य व आतंक का प्रभावशाली वर्णन किया है। उन्होंने शिवाजी के धर्मरक्षक, दानवीर व दयावान, रूप को प्रकट किया है। इनके वीररस से संबंधित पद मुक्तक हैं। इनमें ओजगुण का निर्वाह है। हिन्दी के अन्य वीर रस के कवि शृंगार का वर्णन भी साथ में करते हैं। जबकि भूषण का काव्य शृंगार भावना से बचा हुआ है। अतः कहा जा सकता है कि भूषण वीररस के श्रेष्ठ कवि हैं।

भूषण ने अपने काव्य की रचना ब्रज भाषा में की। वे सर्वप्रथम कवि हैं जिन्होंने ब्रज भाषा को वीर रस की कविता के लिए अपनाया। वीर रस के अनुकूल उनकी ब्रज भाषा में सर्वत्र ही आज के दर्शन होते हैं।

भूषण की ब्रज भाषा में उर्दू, अरबी, फ़ारसी आदि भाषाओं के शब्दों की भरमार है। जंग, आफ़ताब, फ़ौज आदि शब्दों का खुल कर प्रयोग हुआ है। शब्दों का चयन वीर रस के अनुकूल है। मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग सुंदरता से हुआ है।
व्याकरण की अव्यवस्था, शब्दों को तोड़-मरोड़, वाक्य विन्यास की गड़बड़ी आदि के होते हुए भी भूषण की भाषा बड़ी सशक्त और प्रवाहमयी है। हां, प्राकृत और अपभ्रंश के शब्द प्रयुक्त होने से वह कुछ क्लिष्ट अवश्य हो गई है।
भूषण की शैली अपने विषय के अनुकूल है। वह ओजपूर्ण है और वीर रस की व्यंजना के लिए सर्वथा उपयुक्त है। अतः उनकी शैली को वीर रस की ओज पूर्ण शैली कहा जा सकता है। प्रभावोत्पादकता, चित्रोपमता और सरसता भूषण की शैली की मुख्य विशेषताएं हैं।


'=== रस ===
भूषण की कविता की वीर रस के वर्णन में भूषण हिंदी साहित्य में अद्वितीय कवि हैं। वीर के साथ रौद्र भयानक-वीभत्स आदि रसों को भी स्थान मिला है। भूषण ने श्रृंगार रस की भी कुछ कविताएं लिखी हैं, किंतु श्रृंगार रस के वर्णन ने भी उनकी वीर रस की एवं रुचि का स्पष्ट प्रभाव दीख पड़ता है -
'न करु निरादर पिया सौ मिल सादर ये
आए वीर बादर बहादुर मदन के



भूषण की छंद योजना रस के अनुकूल है। दोहा, कवित्त, सवैया, छप्पय आदि उनके प्रमुख छंद हैं।
अलंकार
रीति कालीन कवियों की भांति भूषण ने अलंकारों को अत्यधिक महत्व दिया है। उनकी कविता में प्रायः सभी अलंकार पाए जाते हैं। अर्थालंकारों की अपेक्षा शब्दालंकारों को प्रधानता मिली है। यमक अलंकार का एक उदाहरण देखिए-
ऊंचे घोर मंदर के अंदर रहन वारी,
ऊंचे घोर मंदर के अंदर रहाती हैं।
कंद मूल भोग करें कंद मूल भोग करें
तीन बेर खातीं, ते वे तीन बेर खाती हैं।
भूषन शिथिल अंग भूषन शिथिल अंग,
बिजन डुलातीं ते वे बिजन डुलाती हैं।
‘भूषन’ भनत सिवराज बीर तेरे त्रास,
नगन जड़ातीं ते वे नगन जड़ाती हैं॥
अर्थ -
(१) ऊंचे घोर मंदर – ऊंचे विशाल घर-महल / ऊंचे विशाल पहाड़
(२) कंद मूल – राजघराने में खाने के प्रयोग में लाये जाने वाले जायकेदार कंद-मूल वगैरह / जंगल में कंद की मूल यानि जड़
(३) तीन बेर खातीं – तीन समय खाती थीं / [मात्र] तीन बेर [फल] खाती हैं
(४) भूषन शिथिल अंग – अंग भूषणों के बोझ से शिथिल हो जाते थे / भूख की वजह से उन के अंग शिथिल हो गए हैं
(५) बिजन डुलातीं – जिनके इर्द गिर्द पंखे डुलाये जाते थे / वे जंगल-जंगल भटक रही हैं
(६) नगन जड़ातीं – जो नगों से जड़ी हुई रहती थीं / नग्न दिखती हैं।



भूषण राष्ट्रीय भावों के गायक है। उनकी वाणी पीड़ित प्रजा के प्रति एक अपूर्व आश्वसान हैं। इनका समय औरंगजेब का शासन था। औरंगजेब के समय से मुगल वैभव व सत्ता की पकड़ कमजोर होती जा रही थी। औरंगजेब की कटुरता व हिन्दुओं के प्रति नफरत ने उसे जनता से दूर कर दिया था। संकट की इस घड़ी में भूषण ने दो राष्ट्रीय पुरूषों - शिवाजी व छत्रसाल के माध्यम से पूरे राष्ट्र में राष्ट्रीय भावना संचारित करने का प्रयास किया।भूषण ने तत्कालीन जनता की वाणी को अपनी कविताओं का आधार बनाया है। इन्होंने स्वदेशानुराग, संस्कृति अनुराग, साहित्य अनुराग, महापुरुषों के प्रति अनुराग, उत्साह आदि का वर्णन किया है।

स्वदेशानुराग
भूषण का अपने देश के प्रति गहरा लगाव था। उनकी दृष्टि पूरे देश पर थी। उन्होंने देखा कि औरंगजेब देवालयों को नष्ट कर रहा है तो उनका मन विद्रोह कर उठा। शिवाजी के माध्यम से उन्होंने अपनी वाणी प्रकट की -
देवल गिरावते फिरवाते निसान अली ऐसे समय राव-राने सबै गये लबकी।
गौरा गनपति आय, औरंग की देखि ताप अपने मुकाम सब मारि गये दबकी॥
भूषण ने संस्कृति का उपयोग हिंदुओं को खोया हुआ बल दिलाने के लिए किया। इन्होंने अनेक देवी-देवताओं के कार्यों का उल्लेख किया तथा उन महान् कार्यों की कोटि में शिवाजी के कार्यों की गणना की है। शिवाजी काे धर्म व संस्कृति के उन्नायक रूप में अंकित किया गया है-
मीड़ि राखे मुगल मरोड़ि राखे पातसाह बैरी पीसि राखे बरदान राख्यौ कर मैं।
राजन की हद्द राखी तेग-बल सिवराज देव राखे देवल स्वधर्म राख्यो घर मैं ॥


भूषण ने वेदशास्त्रों का गहन अध्ययन किया है। इन्होंने प्राचीन साहित्य के आधार पर ही अपने काव्य की रचना की उनका साहित्य प्रेम उनकी राष्ट्रीय भावना का परिचायक है।
महापुरुषों के प्रति श्रद्धासंपादित करें
भूषण ने अतीत व वर्तमान के महापुरुषों व जननायकों के प्रति श्रृद्धा व्यक्त की है। इन्होंने शिवाजी और छत्रसाल बुन्देला या अन्य कोई पात्र सभी का उल्लेख केवल उन्हीं प्रसंगों में किया है जो राष्ट्रीय भावना से संबंधित थे। जैसे :
रैयाराव चंपति को छत्रसाल महाराज भूषण सकत को बरवानि यों बलन के।



राष्ट्रीय साहित्य में चेतना का भाव होता है। भूषण के साहित्य में सजीवता, स्फूर्ति व उमंग का भाव है। मुगलों के साथ शिवाजी के संघर्ष का कवि उत्साहपूर्ण शैली में वर्णन किया हैः-
दावा पातसाहन सों किन्हों सिवराज बीर,
जेर कीन्हीं देस हृदय बांध्यो दरबारे से।
हठी मरहठी तामैं राख्यौ न मवास कोऊ,
छीने हथियार डोलैं बन बनजारे से॥
निस्संदेह, भूषण का काव्य राष्ट्रीय चेतना से ओत-प्रोत है। वे सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय भावना के कवि हैं।



भूषण का हिंदी साहित्य में एक विशिष्ट स्थान हैं। वे वीर रस के अद्वितीय कवि थे। रीति कालीन कवियों में वे पहले कवि थे जिन्होंने हास-विलास की अपेक्षा राष्ट्रीय-भावना को प्रमुखता प्रदान की। उन्होंने अपने काव्य द्वारा तत्कालीन असहाय हिंदू समाज की वीरता का पाठ पढ़ाया और उसके समक्ष रक्षा के लिए एक आदर्श प्रस्तुत किया। वे निस्संदेह राष्ट्र की अमर धरोहर हैं


जन्म संवत तथा स्थान - 1670 तिकवांपुर जिला कानपुर।
पिता - रत्नाकर त्रिपाठी।
मृत्यु - संवत 1772।
ग्रंथ - शिवराज भूषण, शिवा बावनी, छत्रसाल दशक।
वर्ण्य विषय - शिवाजी तथा छत्रसाल के वीरतापूर्ण कार्यों का वर्णन।
भाषा - ब्रज भाषा जिसमें अरबी, फ़ारसी, तुर्की बुंदेलखंडी और खड़ी बोली के शब्द मिले हुए हैं। व्याकरण की अशुध्दियां हैं और शब्द बिगड़ गए हैं।
शैली - वीर रस की ओजपूर्ण शैली।
छंद - कवित्त, सवैया।
रस - प्रधानता वीर, भयानक, वीभत्स, रौद्र और श्रृंगार भी है।
अलंकार - प्रायः सभी अलंकार हैं।

Saturday, 6 January 2018

स्वराज्याची चौथी राजधानी अजिंक्यतारा .....

January 06, 2018 2
             अजिंक्यतारा
अजिंक्यतारा हा भारताच्या महाराष्ट्र राज्यातल्या सातारा या जिल्ह्यातील सातारा गावातीलच एक किल्ला आहे.


अजिंक्यतारा/सातारचा किल्ला/सप्तर्षीचा किल्ला/मंगळाईचा किल्ला/शाहूगड/सतारे इ. नावाने चर्चेत होता.

सातारा गावातून दिसणारा अजिंक्यतारा  



नाव-अजिंक्यतारा
उंची-  समुद्रसपाटी पासून 3200 फुट.
          शहरापासून 900 फुट.
लांबी-  पुर्व-पश्चिम - 3300 फुट.
           दक्षिण-उत्तर - 1800 फुट.
प्रकार-गिरिदुर्गचढाईची
श्रेणी-सोपी
ठिकाण-सातारा, महाराष्ट्रजवळचे गावसाताराडोंगररांगसातारा ,बामणोली 
सध्याची अवस्था-व्यवस्थित




स्थापना{{{स्थापना}}}
प्रतापगडापासून फुटणार्‍या बामणोली रांगेवर अजिंक्‍यतारा उभारलेला आहे. अजिंक्‍यतार्‍याची शहरापासुन उंची साधारणत: 900 फुट असून त्याचा दक्षिणोत्तर विस्तार 1800 फुट आहे. आज या किल्ल्यावर वृक्षारोपणासारखे अनेक सामाजिक उपक्रम राबवले जातात.


कसे जाल ?
अजिंक्‍यतारा किल्ला सातारा शहरातच असल्याने शहरातून अनेक वाटांनी गडावर जाता येते. सातारा एस.टी.स्थानकावरून अदालत वाड्यामार्गे जाणार्‍या कोणत्याही गाडीने अदालत वाड्यापाशी उतरून किल्ल्यावर जाता येते. सातारा ते राजवाडा अशी बससेवा दर १०-१५ मिनिटाला उपलब्ध आहे. ’राजवाडा’ बस स्थानकापासून अदालत वाड्यापर्यंत चालत येण्यास १० मिनिटे लागतात. अदालत वाड्याच्या बाजूने असलेल्ली वाट गडावर जाणार्‍या गाडी रस्त्याला लागते. व त्या रस्त्याने १ कि.मी. चालत गेल्यावर माणूस गडाच्या दरवाज्यापाशी पोहचतो. अजिंक्‍यतारा किल्ल्यावर जाण्यासाठी थेट गाडी रस्तासुद्धा आहे. कोणत्याही मार्गाने गड गाठण्यास साधारण १ तास लागतो. गडावर पहाटे चढून जाणे प्रकृती च्या दृष्टी ने चांगले आहे





इतिहास
सातारचा किल्ला (अजिंक्‍यतारा) म्हणजे मराठ्यांची चौथी राजधानी. पहिली राजगड मग रायगड त्यानंतर जिंजी आणि चौथी अजिंक्‍यतारा. सातार्‍याचा किल्ला हा कोल्हापूरच्या शिलाहार वंशातल्या दुसर्‍या भोजराजाने इ.स. ११९० मध्ये बांधला.इ.स.1200 मध्ये देवगिरीच्या यादवांनी जिंकुन घेतला इ.स.1200-1300 पर्यंत यादवांकडेच होता.खिलजी सुलतानने कपट आणि फितुरीने देवगिरीचे राज्य हस्तगत केले.पुढे हा किल्ला इ.स.1347-इ.स.1347-1498 बहामनी सत्तेकडे आणि मग विजापूरच्याआदिलशहाकडे गेला. इ.स.१५79 मध्ये पहिल्या आदिलशहाची पत्‍नी चांदबिबी येथे कैदेत होती. मुधोजी राजे नाईक/निंबाळकर यांना इ.स.1640 पर्यंत कैद करण्यात आले.इ.स.1659 साली महाराजांकडे आला.पुरंदर तहात मुघलांना द्यावा लागला.इ.स.1666 विजापूरकरांनी ताबा मिळवला .इ.स.1673 पुन्हा स्वराज्यात ताबा आला.किल्ल्याच्या महादरवाजाजवळील पोस्टर वर आहे की,"जेजुरी प्रमाणेच अजिंक्यताऱ्यावर देखील शहाजी राजे आणि शिवाजी राजे यांची भेट झाली.त्यानंतर विजापूरच्या ताब्यात गेला.इ.स.11नोव्हेंबर 1675 ला छत्रपतींच्या ताब्यात आला.शिवाजी महारांजांच्या अंगी ज्वर आल्या कारणाने इ.स.1 डिसेंबर 1676-इ.स.25जानेवारी 1677 पर्यंत महाराजांचा याठिकाणी मुक्काम होता.  असे मध्ये शिवाजीच्याराज्याचा विस्तार होत असतांना २७ जुलै १६७३ मध्ये हा किल्ला शिवाजी महाराजांच्या हाती आला. या किल्ल्यावर शिवरायांना अंगी ज्वर आल्याने दोन महिने विश्रांती घ्यावी लागली.इ.स.23मे 1698 साली राजाराम महाराजांनी साताऱ्याला राजधानी म्हणून घोषित केले.इ.स.2 मार्च 1700 रोजी राजाराम महाराजांचे निधन झाले.अजिमशहाने हल्ला चढवला.मोघलांनी फितुरीने केलेल्या हल्ल्यात 2000 लोक मरण पावले.इ.स.20 फेब्रुवारी 1707 साली शाहू महाराजांची मुघलांकडून सुटका झाली आणि इ.स.12 जानेवारी 1708 साली त्यांचा राज्याभिषेक संपन्न झाला.नंतरच्या कालखंडात गडांने रामराजे महाराज,आबासाहेब(दुसरे शाहू )महाराज,प्रतापसिंह महाराज यांचे राज्याभिषेक अनुभवले.दुसर्‍या शाहूच्या निधनानंतर किल्ला ११ फेब्रुवारी १८१८ मध्ये इग्रजांकडे गेला.


गडावरील पहाण्यासारखी ठिकाणे





सातार्‍यातून ज्या मार्गाने आपण गडावर प्रवेश करतो त्यामार्गावर दोन दरवाजे आहेत. आजही या दोन दरवाजांपैकी पहिला दरवाजा सुस्थितीत आहे. दरवाजाचे दोन्ही बुरूज आज अस्तित्वात आहेत. दरवाजातून आत शिरल्यावर उजवीकडे हनुमानाचे मंदिर आहे. हे मंदिर राहण्यास उत्तम आहे. मात्र गडावर पाण्याची सोय नाही. डावीकडे सरळ रस्त्याने पुढे गेल्यावर वाटेत महादेवाचे मंदिर लागते. समोर प्रसारभारती केंद्राचे कार्यालय व मागे प्रसारभारती केंद्राचे दोन टॉवर आहेत. पुढे गेल्यावर एक डावीकडे जाणारी वाट दिसते व 'मंगळादेवी मंदिराकडे' असे तिथे लिहिलेले आढळते. या वाटेत ताराबाई यांचा निवास असलेला पण आता ढासळलेला राजवाडा आणि कोठार आहे. वाटेच्या शेवटी मंगळादेवीचे मदिर लागते. मंदिराच्या समोरच मंगळाईचा बुरूज आहे. मंदिराच्या आवारात अनेक शिल्पे आढळतात. या वाटेने थेट तटबंदीच्या साह्याने पुढे जाणे म्हणजे गडाला प्रदक्षिणा घालण्यासारखेच आहे. गडाच्या उत्तरेलादेखील दोन दरवाजे आहेत. ते तटबंदीवरून प्रदक्षिणा मारतांना नजरेस पडतात. या दरवाजात येणारी वाट सातारा-कराड हमरस्त्यावरून येते.एकूण 7 तळी,7 देवालय, 2 पीर आहेत.गडावर  दरवाजापाशी पाण्याचे तीन तलाव आहेत. उन्हाळ्यात एकातही पाणी नसते. गडाला प्रदक्षिणा घालून आल्यामार्गाने खाली उतरावे लागते. किल्ल्यावरून समोरच यवतेश्वराचे पठार, चंदनवंदन किल्ले, कल्याणगड, जरंडा आणि सज्जनगड हा परिसर दिसतो.



तसेच दक्षिण दिशेला निनाम(पाङळी) हे गाव आहे. या गावात एक पुरातन (इ.स. १७००) मधील कोल्हापूरच्या (रत्‍नागिरीवाङी) जोतिबाचे देऊळ आहे. तसेच गावालगत ङोंगर आहे. तेथे पांडवगळ नावाचे एक पुराणकालीन प्रेक्षणीय स्थळ आहे व या गावाच्या पशिम दिशेला तलावआहे.
मनमोहक असे सूर्योदय आणि सूर्यास्त ...





संपूर्ण गड बघण्यासाठी साधारणतः दीड तास लागतो.

Monday, 1 January 2018

वासोटा (व्याघ्रगड)

January 01, 2018 0

          पश्चिम घाटाची अनुभुती देणारा वासोटा

           वासोटा (व्याघ्रगड)✍

नाव-वासोटा (व्याघ्रगड)
उंची-४२६७ फूट्
प्रकार-वनदुर्ग,गिरीदुर्ग
चढाईची श्रेणी-मध्यम. (परिस्थितीनुसार अवघड)
ठिकाण-सातारा, महाराष्ट्र
जवळचे गाव-कुसापूर, चोरवणे
डोंगररांग-महाबळेश्वर',कोयना
सध्याची अवस्था-व्यवस्थित

अद्वितीयता:
       वासोटा हा महाराष्ट्रातील सहाशे ट्रेक पैकी एक आहे.निमसदाहरित वन असा याचा उल्लेख आहे.या जंगलामध्ये प्रामुख्याने आढळणाऱ्या प्राण्यांपैकी वाघ,बिबट्या,वाणगवा,सांबर,पक्षी,सरपटणारे प्राणी अश्या प्रकारची जैवविविधता आढळते.त्याचप्रमाणे पाचपट्टेरी वाघ,ब्लॅक पँथर,काळी अस्वले देखील आढळतात.
      अभयारण्य साधारणतः 60 किलोमीटर लांब आहे.वासोट्याला जाताना कोयना, कांदाही, सोळशी अश्या त्रिवेरी संगम पार करून जावे लागते.किल्ल्यावरून एकाबाजूस पश्चिम महाराष्ट्र तर दुसऱ्या बाजूस कोकण असा प्रदेश चालू होतो.

महाबळेश्वर पेक्षा सुंदर,दणकट आणि मनमोहित सह्याद्रीची अनभुती देणारा असा हा वासोटा.

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साहसाची अनुभूती देणारा वासोटा किल्ला अनेक दुर्गयात्रींचा आवडता किल्ला आहे. नैसर्गिक दुर्गमता लाभलेला हा किल्ला जावळीच्या जंगलामधील एक अनोखे दुर्गरत्‍न आहे.

सह्याद्रीची मुख्य रांग ही दक्षिणोत्तर पसरलेली आहे. या रांगेला समांतर अशी धावणारी घेरा दातेगडाची रांग घाटमाथ्यावर आहे. ही रांग महाबळेश्वरपासून दातेगडापर्यंत जाते. या दोन रांगाच्या मधून कोयना नदी वाहते. या जावळी खोर्‍यामधून वाहणार्‍या कोयना नदीवर हेळवाक येथे धरण बांधलेले आहे. या जलाशयाला शिवसागर म्हणतात. या शिवसागराचे पाणी वासोटा किल्ल्याच्या पायथ्याला स्पर्श करते. शिवसागराचे पाणी तापोळापर्यंत पसरलेले आहे.

सह्याद्रीची मुख्य रांग आणि शिवसागराचे पाणी यामधील भागात घनदाट अरण्य आहे. पूर्वेला घनदाट अरण्य आणि पश्चिमेला कोकणात कोसळणारे बेलाग कडे यामुळे वासोट्याची दुर्गमता खूप वाढली आहे.


किल्ल्याचा इतिहास

वासोटा ज्या डोंगरावर आहे तेथे वसिष्ठ ऋषींचा एक शिष्य राहत होता, म्हणून त्याने या डोंगराला आपल्या गुरूंचे नाव दिले, अशी आख्यायिका आहे. ’वसिष्ठ’चे पुढे वासोटा झाल असावेे, अशी कल्पना आहे. शिलाहारकालीन राजांनी या डोंगरावर किल्ला बांधला. या किल्ल्याची मूळ बांधणी ही शिलाहार वंशीय दुसर्‍या भोजराजाने केली असल्याचा उल्लेख आढळतो.

वासोट्याचे नाव महाराजांनी व्याघ्रगड असे ठेवले. याच्या दुर्गमतेबद्दल पेशवाईत सुद्धा नोंद आहे. शिवाजीच्या काळात या किल्ल्याचा वापर 'तुरुंग' म्हणून केला जात असे. याचे कारण तेथील निर्जन व घनदाट असे अरण्य. पूर्वी तेथे वाघ, बिबट्यांसारखे प्राणीही होते. हे प्राणी अजूनही आहेत

शिवाजी महाराजांनी जावळी जिंकल्यानंतर आसपासचे अनेक किल्ले घेतले, पण वासोटा जरा दूर असल्याने घेतला नाही. पुढे शिवाजी महाराज पन्हाळगडावर अडकले असताना, आपल्या मुखत्यारीत मावळातील पायदळ पाठवून त्यांनी वासोटा किल्ला दि ६ जून १६६० रोजी घेतला.

अफझलखाच्या वधानंतर शिवाजीच्या दोरोजी या सरदाराने राजापुरावर हल्ला करून तेथील इंग्रजांना अफझलखानाच्या गलबतांचा पत्ता विचारला. त्यांनी सांगितला नाही म्हणून इंग्रजांच्या ग्रिफर्ड नावाच्या अधिकार्‍याला अटक केली व वासोट्यावर ठेवले. .सन १६६१ मध्ये पकडलेल्या इंग्रज कैद्यांपैकी रेव्हिंग्टन, फॅरन व सॅम्युअल यांना वासोट्यावर कैदेत ठेवण्यात आले होते. पुढे १६७९ मध्ये वासोटा किल्ल्यावर २६,००० रुपये सापडले. पुढच्या काळात १७०६ मध्ये ताई तेलिणीने हा किल्ला आपल्या हातात घेतला. पुढील वर्षी पेशव्यांचे सेनापती बापू गोखले यांनी ताई तेलिणीबरोबर लढाई केली. आठदहा महिन्यांच्या प्रखर झुंजीनंतर ताई तेलिणीचा पराजय झाला आणि १७३० मध्ये वासोटा किल्ला बापू गोखल्यांच्या हाती पडला.

त्यासंबंधी एका जुन्या आर्येमध्ये वासोट्याचा गमतीचा उल्लेख आहे. तो असा --
श्रीमंत पंत प्रतिनिधी यांचा अजिंक्य वासोटा;
तेलिण मारी सोटा, बापू गोखल्या सांभाळ कासोटा.

👉वासोट्याला जाण्यासाठीचे मार्ग 🗻

वासोट्याला जाण्यासाठी प्रामुख्याने दोन मार्ग आहेत. एक कोकणमधून आणि दुसरा घाटमाथ्यावरुन.

1.कोकणातील 'चिपळूण'कडून वासोट्याच्या पश्चिम पायथ्याच्या चोरवणे या गावापर्यंत गाडीमार्ग असून या मार्गावर राज्य परिवहन मंडळाच्या (एस.टी.बस) गाड्या आहेत. चोरवणेपासून नागेश्वराच्या सुळक्याकडून वासोट्याकडे येता येते.

2.दुसरा मार्ग हा जास्त सोयीचा आहे. सातारा-कास-बामणोली असा गाडीरस्ता असून यावर रा.प. च्या बसेस आहेत. बामणोली हे गाव शिवसागर जलाशयाच्या पूर्व काठावर आहे. येथून वासोट्याकडे जाण्यासाठी शिवसागर ओलांडावा लागतो. त्यासाठी बामणोलीमध्ये लॉचेस उपलब्ध होतात.एका बोटीमध्ये जास्तीत जास्त 12 व्यक्ती याप्रमाणे बोटी उपलब्ध होतात.एक बोटीवाला 3000-3600 रुपये बोटीमागे घेतो. येथून वनखात्याच्या परवानगीने वासोट्याकडे जाता येते..

लॉचमधून साधारण ४० ते ५० मिनिटांच्या प्रवासानंतर आपण वासोट्याच्या जवळ पोहोचतो. पाण्याच्या फुगवट्यानुसार हा कालावधी कमी जास्त होतो. पायथ्याजवळ मेट इंदवाली नावाचे गाव होते. ते फार पूर्वीच उठून गेलेले आहे. त्याचे अवशेष अजूनही दिसतात.

या अवशेषांच्या जवळूनच गडावर जाणारा धोपट मार्ग आहे. या मार्गाने काही अंतर गेल्यावर आपण पायथ्याला पोहोचतो. पायथ्याला ओढ्याकाठी मारुतीची मूर्ती आहे. येथूनच किल्ल्याची चढण आणि जंगल सुरू होते. सोबतच्या पाण्याच्या बाटल्या ओढ्यातून भरुन घेणे गरजेचे आहे. हा चढाईचा मार्ग दुतर्फा असलेल्या घनदाट जंगलामधून जातो. यात वेगवेगळ्या प्रकारची झाडे व वनस्पती आपल्याला दिसतात. या जंगलात अनेक प्रकारची वन्य श्वापदे आहेत. श्वापदांत गवे आणि अस्वले प्रामुख्याने आहेत. त्यामुळे सावधगिरीने आणि गोंगाट न करता चढाई करावी लागते. कुठलाही प्राणी केव्हाही दर्शन देऊ शकतो. त्यातल्यात्यात गव्यापासून आणि अस्वलापासून अंतर राखणे सुरक्षिततेच्या दृष्टीने महत्त्वाचे असते.

अर्धाअधिक किल्ला चढल्यावर एक वाट उजवीकडे जाते. ही वाट केतकीच्या गाद्याजवळून पुढे नागेश्वराकडे जाते. सरळ वाटेने वर चढल्यावर जंगल विरळ होऊन कारवीचे रान लागते. कारवीच्या रानातून वर चढल्यावर किल्ल्याच्या पायर्‍या लागतात. त्या चढून भग्न प्रवेशद्वारातून गडात प्रवेश होतो.

👉पाहण्यासाठी असलेले ठिकाणं

गडाच्या प्रवेशद्वाराजवळून डावीकडील तटबंदीच्या कडेने जाऊन पूर्वेकडील बाजूस पोहोचल्यावर शिवसागर जलाशयाचा आणि अथांग पसरलेल्या जंगलाचा देखावा आपल्याला मुग्ध करतो. याच बाजूला पाण्याचे टाके आहे. हे टाके भिंतीमुळे दोन भागात विभागले गेले आहे. पिण्यायोग्य पाणी गडावर येथेच आहे. येथून झाडीतून दक्षिण टोकावर गेल्यावर समोरच जुना वासोट्याचा डोंगर दिसतो. जुन्या वासोट्याच्या बाबू कड्याचे तसेच पाताळवेरी गेलेल्या दरीचे दृश्य आपल्याला खिळवून ठेवते. येथून परत पाण्याच्या टाक्यांकडे येऊन उत्तर टोकाकडे निघायचे. गडावरही सर्वत्र झाडीझाडोरा वाढला असल्यामुळे गडावरच्या वास्तू त्यात लुप्त झाल्या आहेत. वाटेवर मारुती मंदिर, मोठ्या वाड्याचे अवशेष तसेच महादेव मंदिर आहे. तेथून पुढे उत्तरेकडील माची आहे. या माचीवर बांधकाम नाही. पण येथून दूरपर्यंतचा परिसर दिसतो. नागेश्वर सुळक्याचे दर्शन उत्तम होते. कोकणातील विस्तृत प्रदेशही येथून न्याहाळता येतो. वासोटा हा गिरिदुर्गाबरोबरच वनदुर्गसुद्धा आहे. म्हणून याला 'मिश्रदुर्ग' म्हटले जाते. येथून दिसणारे नागेश्वर शिखर फारच सुंदर दिसते. नागेश्वर सुळक्याच्या अलीकडे आणखी एक सुळका आहे त्याला तुळशी वृंदावन किंवा ठेंगा असे नाव आहे. पूर्व दिशेला ठोसेघर पठारावर दिसणार्या पवनुर्जा प्रकल्पातील पवन्चक्क्याही सौंदर्यात भरच घालतात.

Monday, 25 December 2017

Skin-How to reacts....

December 25, 2017 0

With Fashion Month still in full swing, it’s impossible to miss the one trend that surfaces at every spring show. Glowing, radiant, dewy, luminous—pick your adjective, but you can always count on seeing enviably clear complexions backstage. Take Marc Jacobs, where the models wore moisturizer, sans makeup. Here’s what I took away from that particular look: faces that require zero foundation must depend on something other than good genes and effective products. My conclusion is that naturally gorgeous skin often starts with your diet.

In theory, it’s brilliantly simple. In practice, I had no “foods for flawless skin” list to bring to the grocery store. To get the scoop on healthy eating for healthy skin, I caught up with a dermatologist, a celebrity esthetician, a beauty expert and a registered dietitian. Discover their secrets below.



How Diet Affects Your Skin

“I tell my patients that what they put in their mouths is as important as the products they apply on their skin,” says Dr. Jessica Wu (dermatologist and creator of Dr. Jessica Wu Skincare), who’s written her own guide to eating for beauty, Feed Your Face. “Foods get digested and broken down into vitamins, minerals and amino acids that your body can use to build healthy skin. If you crash diet or eat highly processed foods, your skin won’t be as strong and supple as it could be. For example, if you don’t eat enough protein, you are depriving your skin of the amino acids that go into making collagen (which makes your skin strong) and elastic tissue (which makes it supple).”

Jessica Crescenzi, founder of Beauty Guru NYC, agrees: “Many clients and friends come to me and say, ‘I’m doing my skincare ritual every morning and evening, but I’m still breaking out.’ My first question to them is ‘How’s your diet?’ The bottom line is that whatever’s going on inside your gut will eventually show in your skin.”

Why You Should Avoid Sugar

“Low-glycemic diets have been shown to be beneficial to acne-prone skin,” says registered dietitian and nutrition expert Alex Caspero, “There are some studies that do not show an association with acne, insulin levels and glycemic loads, but I see consistently positive results in my clients. In my practice, I usually recommend reducing sugar as much as possible. I replace refined, sugary foods with nutrient-dense foods- like fruit, vegetables and healthy sources of Omega-3.”








         👉Ayurvedic suggests 

Vata-Related Weight Imbalances

This begins our three-part series on weight management. To read the articles on Kapha- and Pitta-related weight imbalances and ways to manage them, please visit the newsletter index section.

If you are Vata-predominant, you are normally thin and wiry. But that does not mean weight gain will never be a problem for you. Sometimes Vata types are thin all their lives and then suddenly put on weight because their metabolism has changed. Vata-predominant people are susceptible to mental stress, because they tend to overuse or misuse their minds. When under stress, they also tend to forget to eat regularly, thus disturbing their digestion, creating ama(toxins) and clogging the channels. This is often the precursor to weight gain.

For a Vata person, the most important thing is to reduce mental stress and to nourish the body with light, easily digestible food. To reduce mental stress, you can practice the Transcendental Meditation® program, which has been proven in hundreds of scientific studies to be the most effective technique for dissolving mental, emotional and physical stress. It takes only twenty minutes twice a day, but its effect in improving the quality of life is enormous.

Routine is important

People with a predominance of Vata dosha need a regular routine, to balance the uneven, variable nature of Vata dosha. It's important that they go to bed early, well before ten o'clock and rise early, before 6:00 a.m. A regular routine with adequate sleep is one of the best antidotes to Vata imbalance. Regular meals are essential, with three warm, cooked meals a day. It's important to eat them at the same time every day, as Vata digestion tends to be irregular. By eating at the same time, your digestive enzymes will prepare to digest the food and digestion will be stronger. Avoid work that is stressful to the mind, and practice relaxing exercise such as yoga and pranayama (breathing exercises). A daily oil massage (abhyanga) is especially important for Vata, and the Youthful Skin Massage Oil helps alleviate dry skin that is often a result of Vata imbalance. The skin is one of the primary seats of Vata dosha in the body, so massaging your body every morning with warm, Vata-pacifying oil can go a long way toward soothing your entire nervous system and emotions. The more relaxed you are, and the more regular your routine, the better you will withstand day-to-day stress, and the less likely you are to fall prey to weight imbalances.

Many times people with Vata disorders find themselves in a rush, always in a hurry. It's not healthy for anyone to always be rushing around, to constantly have to hurry, and it's especially harmful to people with Vata imbalances. If you find yourself in that situation, it's important to cultivate a habit of taking it easy and slowing down. Learn to structure a more relaxed, royal daily routine. This is important for mental, emotional and physical health.

Eat a balanced diet

When Vata dosha is the underlying cause of a weight problem, it's important to eat a balanced diet that is easy to digest but also nurturing. Take the middle path, and eat a tridoshic diet, which means one that balances all three doshas. Avoid foods that are too hot and spicy (such as food spiced with chilies, cayenne, and black mustard seed), and at the same time avoid foods that are ice cold, such as ice cream, iced drinks, and cold, heavy desserts. Stay away from foods that are too heavy (such as aged cheeses, meats, and heavy desserts) and also avoid foods that are too light and dry, such as crackers, cold cereals, and packaged snacks. In general, avoid leftovers; frozen, canned or packaged foods; and processed foods of all kinds.

Eat foods that are fresh, organic, and whole. Favor foods that transform easily into ojas, the product of perfect digestion that improves immunity, bliss and happiness in the body, rather than ama. For breakfast try stewed apples and pears; for dinner eat whole grains and soups made with fresh vegetables and pulses; and for the main meal at noon include organic vegetables such as zucchini and loki squash, grains such as quinoa, light proteins such as split mung dhal soups, and light dairy products such as lassi and panir. Cook with light, nourishing oils such as ghee and olive oil, and spices such as turmericcoriandercumin and fennel.

Herbs that heal

Vital Lady or Vital Man is excellent for individuals experiencing Vata-induced weight imbalance. These herbal formulas strengthen resistance to stressful situations and increase creativity, mental abilities and emotional balance. They also aid the body's natural digestion, elimination and purification systems. The overall result of boosting the body's natural systems is an increase in energy and vitality. Someone who has gained weight due to Vata disorders would also benefit greatly from taking Worry Free tablets and the Worry Free Tea. These natural products nurture the mind and help counteract mental strain, which Vata-predominant people are often susceptible to. The Worry Free Tea contains Brahmi, an herb famous for reducing stress and anxiety.

A pilot research study that was done at the University of California in San Diego showed that Worry Free tablets are effective in reducing the effects of day-to-day mental stress. It is highly effective in alleviating occasional stress-related difficulty in falling asleep. Other herbs used in Worry Free Tea include Ashwagandha (winter cherry) and Arjuna. Ashwagandha is an adaptogenic, which means that it combats physical fatigue that converts to mental dullness. Research shows that Arjuna supports the physical and emotional heart. This ancient herb Arjuna is contained in the Blissful Joytablets, which are helpful for managing emotional stress, another possible cause of weight gain.



Wednesday, 13 December 2017

Currency and related audition

December 13, 2017 0
Currency and related audition

1917 मध्ये सुरू झालेल्या 1 रुपयाच्या नोटेची 100 वर्षे पूर्ण, 125 वेळा बदलले नोटेचे रुपडे*

एक रुपयाची आता किंमत काय? ... काहीच नाही. मात्र, १०० वर्षांपूर्वी याच एका नोटेची किंमत तगडी होती. अशा या मौल्यवान रुपयाच्या नोटेवर अनेक पिढ्यांनी प्रेम केले. ही लाडकी नोट गुरुवारी १०० वर्षे पूर्ण करीत आहे. ३० नोव्हेंबर १९१७ रोजी भारत सरकारने एक रुपयाची पहिली नोट चलनात आणली होती. आतापर्यंत १२५ वेळा एक रुपयांची नवी नोट बाजारात आली आहे.

मिंटेज वर्ल्ड  या जगातील पहिल्या नाणी आणि रुपयांच्या ऑनलाईन म्युझियमद्वारे ही माहिती देण्यात आली. मुंबईतील कफ परेड येथील वर्ल्ड ट्रेड सेंटरमध्ये जुन्या नाण्यांचे प्रदर्शन या मिंटेज वर्ल्डद्वारे भरवण्यात आले असून गुरुवारी हे प्रदर्शन पाहायला येणा-यांना या १०० वर्ष जुन्या नोटेची प्रतिकृती आणि नवी एक रुपयाची नोट दिली जाणार असल्याची माहितीही देण्यात आली.

एक रुपयांच्या नोटेचा अनोखा इतिहास
भारतावर इंग्रजांचे राज्य असताना त्यांनी देशात प्रथम १८६१ मध्ये नोटा छापण्यास सुरुवात केली. परंतु एक रुपयांची नोट ३० नोव्हेंबर १९१७ रोजी छापून बाजारात आणली. ही नोट इंग्लंडमध्ये छापण्यात आली होती. सर्वात कमी किमतीची भारतातील ही पहिली नोट होती.

  आतापर्यंत १२५ वेळा एक रुपयांची नोट बाजारात आणण्यात आलेली आहे.
  एक रुपयांच्या नोटेत १०० वर्षात आतापर्यंत २८ वेळा बदल करण्यात आले.
  १९४४ मध्ये सी. ई. जोन्स यांची सही असलेली एक रुपयांची नोट २००९ मध्ये झालेल्या लिलावात १,५०,००० रुपयांना विकली होती.
१९८५ मध्ये एस. वेनिटारमनन यांची सही असलेली एक रुपयांची नोट आणली होती. २१ जानेवारी २०१७ ला झालेल्या लिलावात ही नोट चक्क २,७५,००० रुपयांना विकण्यात आली होती.
  १९७० पर्यंत एक रुपयांची नोट दुबई, बहरीन, मस्कत, ओमान आदि आखाती देशांमध्ये चलन म्हणून वापरली जात असे.
  या एक रुपयांच्या नोटेवरून प्रेरणा घेऊन पोर्तुगीज आणि फ्रान्सने १९१९, १९२४ आणि १९२९ मध्ये अशीच नोट बाजारात आणली होती.
हैदराबाद संस्थाननेही १९४३ आणि १९४६ मध्ये स्वत:च्या संस्थानमधील स्वतंत्र चलन म्हणून एक रुपयांची नोट तयार केली. मात्र ब्रिटिश सरकारच्या एक रुपयासाठी त्यांना अापल्या चलनातील १८ रुपये माेजावे लागत असत.